एक सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल सुलताना अर्जुमन बानू ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि सात माह पहले बुरका न पहनने की निजी इच्छा की रक्षा के लिए उन्होंने अदालत का जो सहारा लिया था, वह बांग्लादेश की तमाम स्त्रियों के लिए नजीर बनेगा। यह इसी का नतीजा है कि वहां की उच्च अदालत ने व्यवस्था दी है कि किसी स्त्री को उसकी इच्छा के बिना नकाब पहनने को मजबूर नहीं किया जा सकता।
मुसलिम बहुल समाजों में बुरके के बढ़ते प्रचलन या अपने यहां भी किसी मुसलिम महिला के बुरका न पहनने की जिद पर कट्टरपंथी संगठनों के हाथों प्रताड़ना झेलने की खबरों के बीच पड़ोसी मुल्क से आनेवाली यह खबर ताजा हवा की तरह है।
बांग्लादेश की अदालत का साफ कहना है कि स्त्री पर किसी तरह का ड्रेस कोड लागू करना यौनिक प्रताड़ना को अंजाम देने जैसा है। सुलताना बानू को वह दिन अब भी याद है, जब कुड़ीग्राम के उनके स्कूल में शिक्षा विभाग के अधिकारी ने उन्हें बिना बुरके में देखकर बेहद असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। उच्च अदालत ने उस अधिकारी को आदेश दिया कि वह सुलताना बानू से माफी मांगे।
गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से बुरके का सवाल बांग्लादेश की संसद में ही नहीं, शिक्षा संस्थानों के भीतर भी जबर्दस्त बहस का विषय रहा है। उच्च अदालत का यह आदेश एक तरह से इस सिलसिले में जारी अदालती आदेशों में चौथा है। ऐसा पहला आदेश विगत मार्च में आया था, जब अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया था कि वह ऐसी महिलाओं को तंग न करे, जो बुरका न पहनती हों।
उस समय उत्तरी रंगपुर जिले में पुलिस ने बगैर बुरके के नौ किशोरियों को एक पार्क से गिरफ्तार किया था और थाने ले जाकर प्रताड़ित किया था। फिर अप्रैल में दूसरा आदेश आया, जिसमें अदालत ने कहा कि शिक्षिकाओं को शिक्षण संस्थानों में बुरका पहनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। पिछले महीने यह आदेश सभी शिक्षण संस्थानों पर लागू कर दिया गया, जब यह पता चला कि उत्तरी बांग्लादेश के एक कॉलेज के प्रिंसिपल ने सभी छात्राओं को बुरका पहनने के लिए मजबूर किया। अब उच्च न्यायालय का यह ताजा आदेश सभी महिलाओं के इस अधिकार की हिफाजत करने का ऐलान करता है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन अदालती आदेशों के पीछे व्यापक जन दबाव भी काम कर रहा है। जमीनी स्तर पर महिलाएं तथा उनके संगठन इसके लिए जोरदार मुहिम चलाते रहे हैं। पिछले साल एक पॉलीटेक्नीक इंस्टीट्यूट में एक छात्रा पर उसके सहपाठी छात्रों द्वारा किए गए हमले का मसला भी काफी गूंजा था। छात्रों ने कॉलेज में पढ़नेवाली छात्राओं पर दबाव डाला था कि वे सिर ढककर चलें और ऊंची एड़ी का सैंडल न पहनें। कंप्यूटर साइंस की एक छात्रा ने जब इसे नहीं माना, तो सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के एक छात्र ने उस पर हमला किया और पिस्तौल से उसे धमकाया।
बांग्लादेश महिला परिषद आदि संगठनों ने सरकार पर दबाव डाला था कि वे फतवे को रोकने एवं स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाएं। फतवे से जुड़ी हिंसा इतनी भयंकर थी कि बांग्लादेश महिला परिषद द्वारा संग्रहीत आंकड़ों के मुताबिक, 2002 में 39 महिलाएं मार दी गईं, जबकि 2003 में 44 स्त्रियां इसका शिकार हुईं। इसी तरह 2004 में 59, 2006 में 66, 2007 में 77, 2008 में 21 और पिछले साल 48 महिलाओं की जान फतवों ने ले ली।
सैयद महमूद हुसैन और गोविंद चंद्र टैगोर की दो सदस्यीय हाई कोर्ट बेंच ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में फतवे या इसलामी आदेश के नाम पर स्त्रियों की चाबुक या डंडे से की जानेवाली पिटाई को आपराधिक घोषित कर दिया। अदालत ने कहा कि जो कोई भी ऐसा गैरविधिक काम करता है, उसे सख्त सजा सुनाई जानी चाहिए। ताजा फैसले में अदालत ने पहले सरकार एवं पुलिस प्रमुख से उनकी इस विफलता पर सफाई भी मांगी। अदालत का विशेष जोर स्त्रियों के खिलाफ जारी होने वाले फतवों पर था।
बांग्लादेश के सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक, हाल के वर्षों में ऐसे फतवों में बढ़ोतरी हुई है और उसकी अभिव्यक्ति अधिक हिंसक हुई है। यह उन इलाकों में भी फैलती दिख रही है, जहां धार्मिक नेताओं की पहले भूमिका नहीं दिखती थी। ऐसे में, हालिया अदालती आदेश से उम्मीद बंधती है।
यह सब ढोग की बाते है कोई भी हिन्दू लड़की नहीं बची है जिसका शील भंग नहीं हुआ है.इस्लाम की कथनी और करनी में बहुत अंतर है.
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