देश के सबसे बड़े राज्य उत्तार प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं पर माफियाओं का एकछत्र राज कायम है। स्वास्थ्य सेवाओं से संबध्द सरकारी संस्थाओं और निजी कंपनियों का गठजोड़ इतना सघन हो गया है कि राजधानी लखनऊ में डेंगू से ताबड़तोड़ हुईं कई मौतों के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ को बीमारी की रोकथाम के लिए स्वास्थ्य विभाग के आला अफसरों को अदालत में तलब करना पड़ा।
चाहे नकली दवाओं का मामला हो या खाद्य पदार्थों में मिलावट का या फिर मलेरिया उन्मूलन हेतु आने वाले करोड़ों के बजट को चट करने का, उत्तार प्रदेश की अव्वलता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। जिसने भी चुनौती देने की कोशिश की, उसे रास्ते से हटना पड़ा। कोई पद से गया, कोई कद से गया तो कोई दुनिया से ही चला गया।
प्रदेश में 45 सौ करोड़ रुपये के विभागीय सालाना बजट में जनता को बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने के बजाय अहम पदों पर बैठे लोगों द्वारा कमीशन हड़पने का खेल खुलेआम चलता है। इस खेल में अगर कोई आदमी दीवार बनता है तो उसे निपटा दिया जाता है, कभी तबादले से तो कभी दूसरे तरीकों से। एक वक्त ऐसा था, जब डीजी हेल्थ के आगे प्रमुख सचिव तक घुटने टेकने को मजबूर हो जाते थे। पल्स पोलियो, शिशु मातृ सुरक्षा, कुष्ठ निवारण, टीकाकरण, जननी सुरक्षा, क्षय रोग उपचार एवं अंधता निवारण जैसी योजनाएं सरकारी बजट की बंदरबांट का जरिया बनी हुई हैं।
प्रदेश के पूर्व स्वास्थ्य राज्यमंत्री डॉ। अरविंद कुमार जैन बताते हैं कि जब वह मंत्री थे तो उन्होंने एक बार स्वास्थ्य भवन में छापा मारने की गलती कर दी, जहां से वह बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वापस आ पाए। यही हाल पूर्व मंत्री डॉ। जौहरी का रहा, उन्हें बीच में ही मंत्री पद से रुखसत होना पड़ा। परिवार कल्याण मंत्री देवेंद्र सिंह भोले भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए थे। माफियाओं के गठजोड़ के तार इतने मजबूत हैं कि उनके आगे मंत्री तक खुद को बौना महसूस करते रहे हैं। प्रदेश की चरमराती स्वास्थ्य सेवाओं की झलक देखने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत किए गए एक ऑपरेशन की बानगी ही काफी है। मिशन के तहत कानपुर देहात में एक पुरुष की बच्चेदानी निकालने के नाम पर भुगतान ले लिया गया। अधिकारियों ने इस भुगतान को खुशी-खुशी पास भी कर दिया। ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन कार्यवाही करे भी तो कौन? जब आका ही पूरे खेल में शामिल हों तो फिर शिकायत किससे की जाए?
हाल में सीबीआई ने दवा के नाम पर जहर देने वाले लोगों का भंडाफोड़ करके राज्य सरकार से दवा आपूर्ति करने वाली संबंधित फर्म के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने की अनुमति मांगी है। सीबीआई सूत्रों के अनुसार, इस फर्म के राजनीतिक रिश्तों के भी पुख्ता सबूत मिल चुके हैं। यह फर्म काफी समय से सरकारी अस्पतालों में घटिया दवाओं की आपूर्ति कर लोगों के जीवन से खिलवाड़ करती रही है। इनमें जीवनरक्षक दवाएं भी शामिल हैं। सीबीआई द्वारा मुख्यमंत्री को भेजे गए एक पत्र मंि इस मामले में मुकदमा दर्ज कराने की अनुमति देने का अनुरोध किया गया है। गृह एवं स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिवों को भी इस पत्र की प्रतिलिपि भेजी गई है, ताकि वे जान सकें कि राज्य में किस तरह खुलेआम जन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
सूत्रों के अनुसार, मुख्य सचिव को भेजे गए इस पत्र में सीबीआई ने राज्य में हो रहे दवा घोटाले का पूरा जिक्र किया है। केंद्र सरकार को भी पश्चिमी उत्तार प्रदेश के कई सरकारी अस्पतालों में घटिया दवाएं दिए जाने की शिकायतें मिली थीं। इस आधार पर मेरठ, गाजियाबाद, अलीगढ़, सहारनपुर, रामपुर, बरेली एवं शाहजहांपुर आदि जिलों के सरकारी अस्पतालों में छापे मारे गए। वहां दी जा रही दवाओं के नमूने लिए गए, जिनकी जांच कोलकाता स्थित सरकारी लैब में कराई गई। जांच में पाया गया कि एक फर्म विशेष द्वारा सरकारी अस्पतालों में आपूर्ति की गई दवाएं मानक के अनुरूप नहीं हैं। जांच रिपोर्ट आने के बाद सीबीआई ने मेरठ स्थित उस फर्म विशेष पर अपनी नजरें गड़ाईं। पता चला कि वह राज्य के सरकारी अस्पतालों में दवाओं की आपूर्ति करने वाली प्रमुख फर्मों में शामिल है।
इस फर्म के साथ विभिन्न राजनीतिक हस्तियों, विभागीय अधिकारियों एवं डॉक्टरों के गठजोड़ के भी तमाम सबूत सीबीआई के हाथ लगे हैं। सूत्रों के अनुसार, शासन में उक्त फर्म के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने की अनुमति देने पर विचार किया जा रहा है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि प्रदेश में 45 सौ करोड़ रुपये के विभागीय सालाना बजट में जनता को बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने के बजाय अहम पदों पर बैठे लोगों द्वारा कमीशन हड़पने का खेल खुलेआम चलता है। इस खेल में अगर कोई आदमी दीवार बनता है तो उसे निपटा दिया जाता है, कभी तबादले से तो कभी वक्त ऐसा था, जब डीजी हेल्थ के आगे प्रमुख सचिव तक घुटने टेकने को मजबूर हो जाते थे।
पल्स पोलियो, शिशु मातृ सुरक्षा, कुष्ठ निवारण, टीकाकरण, जननी सुरक्षा, क्षय रोग उपचार एवं अंधता निवारण जैसी योजनाएं सरकारी बजट की बंदरबांट का जरिया बनी हुई हैं। वर्ष 2000 में परिवार कल्याण विभाग के पूर्व महानिदेशक डॉ। बच्ची लाल की हत्या का कारण उनका इस पद पर पहुंचना ही था। वह भविष्य में डीजी हेल्थ बनने वाले थे। इस हत्या में एक वर्तमान माफिया सांसद का नाम पुलिस र्फ उद्योगपति और ठेकेदार ही भूमिका अदा करते थे, लेकिन माफियाओं के खूनी खेल ने स्वास्थ्य विभाग के रंग और ढंग ही बदल दिए।
निर्माण कार्यों की निविदाएं तय करने और ठेका पाने की जोड़तोड़ राजधानी लखनऊ में होने लगी। निर्माण कार्यों हेतु मिलने वाले अरबों के बजट के लालच में माफियाओं ने इस विभाग में अपना डेरा डाल दिया। परिणामस्वरूप अनेक चिकित्सालयों का निर्माण मानक के विपरीत हुआ। कई जगह आईसीयू सहित अनेक मशीनें बेवजह खरीद ली गईं अथवा आईसीयू बना दिया गया, लेकिन डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं की गई। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचमए) के तहत मिले तीन हजार करोड़ रुपये पर सबकी निगाहें हैं। परिवार कल्याण के नाम पर जिलेवार करीब 15 से 30 करोड़ रुपये खर्च होने हैं। इसके लिए शासन की नई व्यवस्था से माफियावाद को बढ़ावा मिलेगा।
सीएमओ-परिवार कल्याण को सीधे चेक से भुगतान, आपूर्ति एवं निर्माण के ठेके देने और संविदा चिकित्सकों, नर्सों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति आदि का अधिकार देना विभागीय चिकित्सकों भी हजम नहीं हो रहा है। सीएमओ के समानांतर सृजित सीएमओ- परिवार कल्याण पद के खिलाफ प्रांतीय चिकित्सा सेवा संघ अदालत चला गया है। संघ के अध्यक्ष डॉ। यू एन राय का कहना है कि वित्तीय अनियमितताओं पर अंकुश लगाने के लिए भुगतान चेक पर दो अधिकारियों के हस्ताक्षर अवश्य होने चाहिए। उधर सीएमओ-परिवार कल्याण डॉ। विनोद कुमार आर्या के हत्यारों तक पहुंचने के लिए पुलिस ने विभाग के कई अहम दस्तावेज अपने कब्जे में ले लिए हैं।
उन कर्मचारियों का भी लेखा-जोखा हासिल किया जा रहा है, जो सीएमओ के करीब रहते थे। पता चला है कि अंधता निवारण योजना के तहत 53 लाख के टेंडर के अलावा किसी भी ठेके का मामला मौजूदा समय में नहीं था। यही टेंडर पाने के लिए ठेकेदारों में जोर आजमाइश चल रही थी। डॉ। आर्या की नियुक्ति चार महीने पहले ही बतौर जिला परियोजना अधिकारी, परिवार कल्याण (डीपीओ) हुई थी। एक माह पहले ही डीपीओ का पद सीएमओ-परिवार कल्याण में तब्दील हुआ था। तबसे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़े कई महत्वपूर्ण कार्य उनके पास थे। मूल रूप से शाहजहांपुर निवासी डॉ। आर्या के करियर पीएमएस से 1987 में शुरू हुआ था। सूत्रों के मुताबिक, उनके कामों से जुड़ा लगभग तीस करोड़ रुपये का बजट हाल में जारी हुआ था।
बीते दस वर्षों के दौरान सरकारी ठेके हथियाने को लेकर एक दर्जन से ज्यादा हत्याएं हुईं। राजधानी लखनऊ में डॉ। आर्या की हत्या के तुरंत बाद बहराइच में ठेकेदारी को लेकर एक अवर अभियंता पर जानलेवा हमला हो गया। सरकारी ठेकों के चक्कर में अब तक कई अधिकारी अपनी जान गवां चुके हैं।एस के मिश्रा जल निगम सीतापुर में मुख्य अभियंता थे। 2001 में लखनऊ में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई। 6 जुलाई 2003 को मुरादाबाद में लोक निर्माण विभाग के सहायक अभियंता अनवर मेंहदी रिजवी की हत्या हो गई। सोनभद्र में इसी विभाग के एक और सहायक अभियंता एस आर चौधरी 28 दिसंबर 2004 को अपनी जान गवां बैठे। इसी प्रकार 23-24 दिसंबर 2008 की रात अधिशासी अभियंता औरैया मनोज कुमार गुप्ता की हत्या कर दी गई। 2 अगस्त 2009 को गोरखपुर में सिंचाई विभाग के सहायक अभियंता मनोज कुमार सिंह की हत्या हो गई। 2009 में ही सरयू नहर खंड-3 बलरामपुर के सहायक अभियंता रूप चंद्र भास्कर की हत्या हुई। इसी तरह अधिशासी अभियंता जी एस यादव भी मौत के घाट उतार दिए गए।
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