सात समंदर पार दक्षिण अमेरिका के पेरू निवासी एक ड्रम प्लेयर ने दाह संस्कार की रस्म से प्रभावित होकर हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है।
काशी आकर उसने तीर्थ पुरोहित की मदद से बृहस्पतिवार सुबह गंगा तट पर अपने पिता और चाचा की अस्थियां विसर्जित की। साथ ही सविधि कर्मकांड भी किया। उसकी मानें तो मोक्ष के लिए जल्द ही उसके वतन के और लोग भी इस संस्कृति से जुड़ सकते हैं। इससे पहले वह ईसाई था।
पेरू के लिमा शहर निवासी सेरजियो विल्लाविसेन्सियो के हिंदू संस्कृति से प्रभावित होने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। वह 2010 में वाराणसी घूमने आया तो जीवन में पहली बार मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर शवों को चिताओं पर रखकर जलाते देख कौतूहल से भर गया था।
इसके बाद सेरजियो ने अंतिम संस्कार की इस भारतीय परंपरा को समझने के लिए हिंदू आचार्यों की भी मदद ली।
वतन जाने के बाद जब उसके पिता हिपोलिटो विल्लाविसेन्सियो का निधन हुआ, तब मां लूरदेच और अन्य रिश्तेदारों, पड़ोसियों की तमाम जिद के बाद भी सेरजियो ने अपने पिता के शव को दफनाने नहीं दिया।
उसकी पत्नी निकोल जो अमेरिकन कहानीकार है, वह भी अपने श्वसुर को दफनाने के ही पक्ष में थी। फिर भी सेरजियो ने पेरू में हिंदू प्राइस्ट (पुजारी) की तलाश की और हिंदू रीति के अनुसार अपने पिता के शव को चिता पर जलाया। मुंह में सोना, तुलसी डालने की भी रस्म पूरी की गई थी।
चिता पर शव रखने से पहले स्नान कराने के बाद घी का लेप भी कराया गया था। इसके बाद उसके चाचा अलजेंद्रो ओरे का निधन हुआ तब उनका भी उसने दाह संस्कार किया लेकिन इतना विधि-विधान नहीं हो सका था। पिता और चाचा की अस्थियां चुनकर घर में रख ली थी।
बृहस्पतिवार को सेरजियो ने अपने पिता और चाचा की अस्थियां गंगा में विसर्जित की। तुलसी घाट से लगे भदैनी पंप घाट पर उसने अस्थियों के विसर्जन के बाद श्राद्ध और पिंडदान कर अपने पुरखों के मोक्ष की रस्म भी पूरी कर ली।
सेरजियो ने अमर उजाला को बताया कि पूर्वजों को दफनाने की ही परंपरा थी लेकिन जब वह अपने पिता के शव को चिता पर मुखाग्नि दे रहा था तब वह दृश्य देखने के लिए न सिर्फ तमाम लोग पहुंचे बल्कि इस प्रक्रिया के बारे में जानकारी भी ली।
उसे उम्मीद है कि अंतिम संस्कार की इस परंपरा का और लोग भी वहां जल्द ही अनुकरण कर सकते हैं।
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