‘‘कांग्रेस सदस्यों में सरदार वल्लभभाई पटेल विभाजन के सबसे बड़े समर्थक थे लेकिन उन्हें भी विश्वास नहीं था कि भारत की समस्याओं का सबसे बेहतर समाधान विभाजन हो सकता है। उन्होंने अपने आप को बंटवारे के पक्ष से बाहर रखा। उनका कहना था कि इससे रंजिश और दंभ बढ़ेगा। उन्होंने अपने आप को हर कदम पर तब दुविधा में पाया जब तत्कालीन वित्तमंत्री लियाकत अली खॉ ने उनके प्रस्ताव ठुकरा दिये। बेहद गुस्से में उन्होने फैसला किया कि अगर कोई विकल्प न बचे, तो बंटवारे का प्रस्ताव मान लिया जाये। उनका विचार था कि अगर ये प्रस्ताव मान लिया गया तो यह मुस्लिम लीग के लिए एक कड़वा सबक होगा। पाकिस्तान थोड़े ही समय में लड़खड़ा जायेगा और जो सूबे भारत छोड़ कर पाकिस्तान में शामिल हुये हैं उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना होगा’’ - मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी आत्मकथा ‘‘इंडिया विन्स फ्रीडम’’ में यह बात आजादी मिलने के दस साल बाद 1957 में लिखी है।
एक राय यह भी है कि आज़ाद ने जवाहरलाल नेहरू को इस बात का दोष दिया था कि उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दो अवसरों पर सुलह सफाई की सम्भावनाओं पर पानी फेर दिया। पहला मौका आया 1937 में, जब मोहम्मद अली जिन्ना ने मांग की उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के दो प्रतिनिधियों को लेकर सरकार बनाई जाये। ऐसा दूसरा मौका तब आया जब नेहरु ने एक बयान जारी करके कहा कि आजाद भारत को संविधान निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाया जाएगा और कैबिनेट मिशन के साथ जिस योजना पर सहमति हुई थी वह बाध्य नहीं होगी।
यह सर्व विदित है कि मौलाना आज़ाद, मोहम्मद अली जिन्ना और बंटवारे के प्रबल विरोधी थे और धर्म निरपेक्ष भारत में मुसलमानों के सह-अस्तित्व की सामूहिक भावना के प्रतीक थे। अखबारों के लिए जारी एक बयान में 15 अप्रैल, 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने कहा था ‘‘मैंने हर तरह से पाकिस्तान की उस स्कीम को समझ लिया है जिसे मुस्लिम लीग ने तैयार किया है। एक भारतीय होने के नाते मैंने इसके भारत के भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का भी अंदाजा लगाया है। एक मुसलमान होने के नाते मैंने इस पहलू पर भी गौर किया है कि इसका भारत के मुसलमानों पर क्या असर होगा। इस योजना के सभी पक्षों पर विचार करने के बाद मैंने निष्कर्ष निकाला है कि यह सिर्फ भारत के लिए ही नुकसानदेह नहीं है, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए नुकसानदेह है। यह योजना जिन समस्याओं के समाधान के लिए बनाई गई है वह और समस्याएं पैदा करेगी।’’
कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते मौलाना आजाद ने जिन्ना को यह समझाने की कोशिश की कि वह अपना कठोर रवैया बदलें। उन्होंने एक गोपनीय तार भी भेजा। इस तार में उन्होंने कहा ‘‘मैंने आपका 9 जुलाई का बयान पढ़ा है। दिल्ली प्रस्ताव एक अच्छा प्रस्ताव है और राष्ट्रीय सरकार सिर्फ एक ही पार्टी की सरकार नहीं होगी। लेकिन लीग इसे मानने को तैयार नहीं थी क्योंकि यह योजना दो राष्ट्र के सिद्धांत पर आधारित नहीं थी।’’
जिन्ना का जवाब सिर्फ नकारात्मक नहीं था बल्कि यह निश्चय ही अपमानित करने वाला था। उन्होंने कहा ‘‘मैं आपका विश्वास नहीं लेना चाहता। मुस्लिम भारत का आपका विश्वास पूरी तरह खत्म हो चुका है। क्या आप ऐसा नहीं सोचते कि कांग्रेस ने आपको ऐसा दिखावटी अध्यक्ष बना दिया है जिसे सामने लाकर वह गैर-कांग्रेसी दलों और दुनिया के अन्य देशों को डराती है। आप न तो मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं और न ही हिन्दुओं के। कांग्रेस हिन्दुओं की संस्था है और अगर आपमें ज़रा भी आत्मसम्मान बाकी है तो आप इससे तुरंत इस्तीफा दे दें।’’
यह मौलाना आज़ाद की उदार भावना और एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी कि इसके बावजूद जिन्ना को मनाने की महात्मा गांधी की कोशिशों का उन्होंने विरोध नहीं किया। गांधी, जिन्ना का दिल नहीं बदल पाए। गांधी को भी उनका जवाब कोई अलग नहीं था। गांधी ने हजार कहा हो लेकिन उन्होंने ज़ोर देकर दो राष्ट्रों के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि ‘‘हम इस बात को पक्का कह सकते हैं कि मुसलमानों और हिन्दुओं में सभी मानकों के अनुसार दो राष्ट्रों की भावना है। सभी अंतर्राष्ट्रीय मानकों और सिद्धांतों के आधार पर हम मुसलमान एक राष्ट्र हैं।’’
मौलाना आज़ाद ने कांग्रेस नेताओं को भरसक समझाने की कोशिश की कि वह तब तक इंतजार करें जब तक समस्या का सही समाधान न निकल आए। लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। वस्तुत: मौलाना ने गुस्सा और हताशा में इसे कांग्रेस नेताओं की नेत्रहीनता (दूरदृष्टि का अभाव) कहा।
ऐसा जान पड़ता है कि जिन्ना का विश्वास था कि राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को मानना जरूरी नहीं है। बंटवारे के बाद मुस्लिम लीग की बुरी हालत हुई और उसके नेता जो भारत में रह गए उन्होंने भी इसे महसूस किया। जिन्ना अपने अनुयायियों को यह संदेश देकर कराची चले गए कि अब देश बंट चुका है और उन्हें भारत के वफादार नागरिकों की तरह व्यवहार करना चाहिए। जब इन गुस्साए नेताओं ने मौलाना आज़ाद से भेंट की तो उन्होंने शिकायत की कि ‘‘जिन्ना ने उन्हें धोखा दिया है और उनके हाल पर छोड़ दिया है।’’ इस पर मौलाना ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया कि वह क्या कह रहे हैं और जिन्ना ने उन्हें कैसे धोखा दिया। ‘‘उन्होंने तो खुले आम देश को बांटने की मांग की थी और मुस्लिम बहुमत वाले प्रांतों को इसका आधार बताया था।’’
जिन्ना की हालत से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अपने प्रस्ताव को लेकर गंभीर नहीं थे और सिर्फ एक खेल खेल रहे थे। जहां तक उनके सिद्धांत का सवाल है, यह उनके संविधान सभा में दिए गए पहले भाषण से ही स्पष्ट है। नए राष्ट्र का नाम पाकिस्तान रखा गया। आज़ाद और गांधी को हराने के बाद साम्राज्यवादी शासकों की मक्कारी खुल गई और उन्होंने नए देश के लिए राष्ट्रीयता की मांग की। उन्होंने नए देश और इसके निवासियों को सलाह दी कि वे हिन्दुओं और मुसलमानों को पाकिस्तानी समझें। इसी आधार पर कुछ इतिहासकारों ने जिन्ना को धर्म-निरपेक्ष नेता बताया है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एल. के. आडवाणी ने इसी आधार पर जिन्ना को धर्म निरपेक्ष कहा था।
लेकिन मौलाना आज़ाद ने जिन्ना की मक्कारी का खुलासा कर दिया। उन्होंने द्वि- राष्ट्रवाद सहित इसके कई आधार बताए। मौलाना ने कहा कि ‘‘यह लोगों के साथ बहुत बड़ा धोखा होगा और इसी के आधार पर हम भौगोलिक, आर्थिक और भाषाई रूप से अलग होते हुए भी धार्मिक रूप से एकता का दावा कर सकते हैं। यह सही है कि इस्लाम ने एक ऐसे समाज की स्थापना की बात कही, जो जातीय, भाषाई, आर्थिक और राजनीतिक सीमाओं में नहीं बंधता। लेकिन इतिहास ने साबित कर दिया है कि पहली सदी के बाद इस्लाम सभी मुसलमान देशों को एक नहीं रख पाया।’’
इस बात पर ज़ोर देते हुए कि यह स्थिति ‘‘बंटवारे से पहले थी, और अब हालत यह है।’’ मौलाना ने 1958 में कहा था ‘‘कोई उम्मीद नहीं कर सकता कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान अपने सभी मतभेद सुलझा लेंगे और एक राष्ट्र बने रहेंगे।’’ इतिहास ने हालांकि सिद्ध कर दिया कि किस तरह से पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान से अलग हो गया और 1971 में वह एक स्वतंत्र राष्ट्र – बांग्लादेश बना।
मौलाना आज़ाद अपनी बातों को लेकर कितना गंभीर थे यह इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने कहा था ‘‘पश्चिम पाकिस्तान के तीन प्रांत – सिंध, पंजाब और सीमा प्रांत, आंतरिक रूप से असंबद्ध हैं और अलग-अलग उद्देश्यों तथा हितों के लिए काम कर रहे हैं।’’ पाकिस्तान के बनने के एक साल बाद मौलाना आज़ाद ने लाहौर की एक उर्दू पत्रिका ‘चट्टान’ को इंटरव्यू देते हुए पाकिस्तान के लिए एक अंधकारमय समय की भविष्यवाणी की थी और आज यह सच साबित हुआ।
‘‘सिर्फ इतिहास यह फैसला करेगा कि क्या हमने बुद्धिमानी और सही तरीके से बंटवारे का प्रस्ताव मंजूर किया था।’’ मौलाना को यह तथ्य अच्छी तरह पता था कि अनेक लोग उनकी बातों को नहीं मानते। उन्होंने कहा था ‘‘मज़हब में, साहित्य में, राजनीति में और दर्शन के रास्ते में जहां भी मैं गया, मैं अकेला गया। समय के कारवां ने, मेरी किसी भी यात्रा में मेरा साथ नहीं दिया।’’
सीताराम शर्मा
(श्री सीताराम शर्मा कोलकाता के मौलाना अबुल कालाम आज़ाद एशियाई अध्ययन संस्थान के अध्यक्ष हैं। यह संस्थान भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के तत्वाधान में चल रहा है।)
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