अगर हम गरीब हमेशा से ही थे तो हमें लूटने और आक्रमण करने क्यों लोग आए? अगर हम अंगरेजों के आने के बाद ही पढ़े-लिखे बने तो ताजमहल बनाने वाले, रामेश्वर और तंजौर के विश्व को चकित करनने वाले शिल्पों की नापजोख, आकार के प्रमाण और सदियों तक स्थिर रहने वाली निर्माण शैली किसने दी?
अगर भारत के हिंदू सांप्रदायिक, अल्पसंख्यक-विरोधी और घृणा में डूबे असहिष्णु थे तो सेंट थॉमस को केरल में किन लोगों ने सत्कार से रखा। किन्होंने पारसी, यहूदी और तिब्बती तमाम खतरे उठा कर भी अपनी आत्मीयता में संजो कर रखे और उनको भरपूर समान अवसर, समान अधिकार दिए?
आजादी के बाद वामपंथी बौद्धिकता का दंश इस कदर प्रभावी हुआ कि आत्मदैन्य और सरहद पार की वफादारी राजनीति का स्वीकार्य चलन बना गया, जो शिक्षा संस्थानों तक इतने गहरे उतरा कि दो-तीन पीढ़ियां स्वयं और अपने पुरखों के प्रति दीनता, हेयता, तिरस्कार से देखने लगीं। अंगरेजों ने रेललाइनें बिछा कर देश को एक किया, नहीं नहीं, एक देश बनाया, आइसीएस के लौह ताने-बाने ने प्रशासनिक इकाई मजबूत की, उन्होंने नक्शे दिए, भाषा दी, ज्ञान-विज्ञान दिया, तहजीब सिखाई, नई दिल्ली बना कर हमें सौंपी, यानी कि कुल जमा हमें आदमी बनाया।
जाहिर है कि जब गोरों ने हमें आदमी बनाया तो मुल्क में जो भी अच्छा, खराब हो, उसकी शिकायत या रपट तो अब्बा हुजूर से की ही जानी चाहिए। चर्चों पर हमले हुए तो अमेरिका, ब्रिटेन सहित ईसाई देश चौकन्ने हुए, उनके संवाददाता सब कुछ छोड़ कर बस ईसाइयों पर हिंदुत्ववादियों के आघात पर फोकस करने लगे। अभी मैं आदिस अबाबा से लौटा। वहां सब कुछ यानी विकास, नया तंत्र, नई आशा, नया विश्वास वगैरह सुनने के बाद जो सवाल पूछा गया, वह था- यदि मुंबई के पूर्व पुलिस प्रमुख जूलियो रिबेरो भी इस बुढ़ापे में, सिर्फ ईसाई होने के नाते स्वयं को असुरक्षित समझते हैं तो यह कैसी सुरक्षा है? कैसा विकास है?
क्या जवाब देंगे आप?
क्या रिबेरो साहब सच में असुरक्षित हैं? पांच लाख कश्मीरी हिंदू घर से बेइज्जत करके निकाले गए। उनकी स्त्रियों पर अंतहीन पाशविक अत्याचार हुए। कितने हिंदू अमेरिका और ब्रिटेन से मदद मांगने गए या भारत में असुरक्षित होने का बयान दिया? दिल्ली में छह-सात चर्चों पर हमले या चोरी और डकैती की खबरों के साथ ही दो सौ हिंदू मंदिरों में चोरी की खबरें भी आर्इं। एक थी खबर, दूसरी को खबर ही नहीं माना गया।
हमला चर्च पर हो तो भी, बाकी पर हो तो भी, एक भी हो तो भी बहुत है। बराबर का निंदनीय है और ईमानदारी से यह सुनिश्चित करना ज्यादा जरूरी है कि अल्पसंख्यकों पर न सिर्फ कोई भी हमला न हो, बल्कि अगर वे सबसे ज्यादा सुरक्षित हों तो उस राज में हों जिसे लोग साधारणत: बहुसंख्यकों के साथ जोड़ते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो हम अपने धर्म, अपनी विचारधारा के प्रति न्याय नहीं करते।
लेकिन अभी तक चर्च पर हमलों और ईसाई आस्था की सम्मानजनक प्राणवाहिनी ननों पर हमले की जितनी खबरें आई हैं और उन हमलों में शामिल जो अभियुक्त पकड़े गए हैं उनमें से कितनों से यह पता चलता है कि वे दूसरी आस्था के हिंसक के लोगों की सुनियोजित योजना का परिणाम था? प्राय: सभी में, जिनमें बंगलुरु के अभियुक्तों में सभी के ईसाई आक्रामक होना भी सिद्ध हुआ। चोर, डकैत, घटिया, बीमार मानसिकता के लोग सामने आए।
हिंदुओं पर घृणा के हमले किसे लाभ पहुंचाते हैं? क्यों इस देश और उसकी छवि की रक्षा में सबकी समान दावेदारी और साझेदारी नहीं है? क्या रिबेरो साहब असुरक्षित महसूस करेंगे और यह हम सबके लिए सुखद होगा? जिन रिबेरो साहब को हमने देश की आन-बान, शान और कठोर प्रशासनका प्रतिमान माना, क्या उनकी सुरक्षा, उनकी संवेदना, उनके मन की भावना का अनादर करके हम अपनी भारतीयता को गौरवान्वित करेंगे? हठात तब महसूस होता है कि रिबेरो साहब ईसाई हैं।
अगर कोई यह मानता है कि हिंदू, हिंदुत्व पर आघात करके वह हिंदूनिष्ठ संगठनों पर राजनीतिक आघात कर रहा है, तो वह निहायत गलत सोचता है। हिंदू धर्म का गौरव सबकी साझी जिम्मेदारी है। कोई एक-दो या खास संगठन हिंदुओं की अकेली आवाज नहीं बन सकते, न बनना चाहिए। हिंदुओं का प्रतिशत निकाला जाए तो वैसे भी अधिकांश इन हिंदूनिष्ठ संगठनों के विपक्ष में भी मत देते हैं। दिल्ली में क्या हुआ? क्या यहां के हिंदुओं ने हिंदूनिष्ठ संगठनों के पक्ष में हिंदू होने के नाते मत दिया?
इसलिए कृपया अपनी राजनीतिक तीरंदाजी के लिए हिंदुओं के खिलाफ घृणा फैलाने और उन्हें राक्षसी मिजाज वाला सिद्ध करने की जल्दबाजी मत कीजिए। इससे देश का अहित ही होगा। अगर हिंदू सच में घृणा करने वाला अतिरेकी बनेगा तो फिर इस देश में कौन किसको बचाएगा, या बचा पाएगा यह बताइए?
घृणा और बर्बरता के आक्रमण झेलते आने के बावजूद अगर हिंदू ने घृणा और बर्बरता नहीं अपनाई तो इसी का नतीजा है कि भारत न तो थियोक्रेटिक स्टेट बना और जब तक हिंदू हैं वे इसे कभी भी वैसा बनने नहीं देंगे। यह गारंटी है।
लेकिन एक बार यह तो देखिए कि हिंदू ने क्या-क्या झेला है? अभी कुछ माह पूर्व तिरुपति-तिरुमाला में जो घटना हुई उस पर न तो कोई सेक्युलर बोला, न रिबेरो साहब जैसे बोले। वहां पास्टर सुधीर नामक पादरी पवित्र बालाजी मंदिर के स्वर्ण कलश की पृष्ठिभूमि में, सुरक्षा-दायरा तोड़ कर एक हिंदू को ईसाई बनाने पहुंचा। उसका वीडियो लिया। उसमें बोला कि तुम्हारा भगवान झूठा और शैतान है- इसलिए मैं तुम्हें सच्चे ईश्वर की शरण में ला रहा हूं। इस धर्मांतरण का वीडियो फेसबुक पर आते ही हंगामा हुआ, पादरी गिरफ्तार हुआ।
तो भी क्या कहीं इस पर आवाज उठी? शायद ज्यादा लोगों के ध्यान में भी यह घटना न होगी।
हिंदू के धर्मांतरण का अर्थ ही उसके विरुद्ध हिंसा है। जीजस के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव तो रखते ही हैं। करुणा, दया, ममता, बलिदान, संघर्ष, अपनों के विश्वासघात के बावजूद सत्य की शरण के वे महान प्रतीक हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि हम चर्च के धर्मांतरण व्यापार का भी समर्थन करें। जीजस के प्रति सम्मान रखते हुए भी वैटिकन के षड्यंत्रों और धर्मांतरण का अपनी आखिरी सांस तक विरोध हमारा संवैधानिक अधिकार क्यों न माना जाए?
जब किसी हिंदू का धर्मांतरण होता है तो उसके देवी-देवता झूठे बताए जाते हैं। अचानक राम, कृष्ण, सीता, विष्णु, शिव, दुर्गा उसके लिए त्याज्य और तिरस्कार योग्य हो जाते हैं। जो शब्द, मंत्र, आस्था उसकी धमनियों में हजारों वर्ष से बहती आई, उसके विरुद्ध वह खराब, बहुधा आक्रामक अपशब्दों के साथ पुस्तकें, इश्तहार लिखता है। अचानक होली, दीवाली, दशहरा, रक्षाबंधन उसके लिए विदेशी, पराए और अंधविश्वास के खराब प्रतीक हो जाते हैं। अचानक उसे अमेरिका की सीनेट में अपने ही देश के खिलाफ गवाही देना उचित प्रतीत लगने लगता है। क्या यह स्वीकार करना मेरा सेक्युलरवाद होना चाहिए?
जनधन की कसौटी है पारस्परिक विश्वास और आत्मीयता। भारत के मन पर सिर्फ आस्था की संकीर्णता के कारण आघात हमारे सामाजिक सौमनस्य की चादर मजबूत नहीं कर सकते। आस्था पर चोट न इधर होनी चाहिए, न उधर। एकाध सिरफिरे, अधपढ़े लोग कहीं अर्थहीन बयान दें, तो उसे सवा अरब की आवाज मानना गलत होगा। अपनी आस्था का प्रथम बिंदु यदि भारत नहीं है, तो ऐसी आस्था हमें त्याज्य माननी चाहिए। भारत से बढ़ कर कुछ हो नहीं सकता- यह बात अपराक्रम्य है।
- लेखक : तरुण विजय