आज भारत बाबा साहेब भीमराव आबेडकर की 126वीं जयन्ती मना रहा है; 126 वर्ष पूर्व आज के ही दिन भीम राव का जन्म एक छोटे से गांव महू, जो वर्तमान में मध्यप्रदेश में है, के पूर्ववर्ती अस्पृश्य परिवार में हुआ था।
वास्तव में बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवन और कार्यों के बारे में व्यापक अनुसंधान, अध्ययन और लेखन हो चुका है। आज हम बाबा साहेब को स्वतंत्रता आंदोलन के महानतम नेताओं में से एक के रूप में देखते हैं, जो न केवल एक क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में महान थे, बल्कि शैक्षिक दृष्टि से एक महान बुद्धिजीवी थे। बाबा साहेब नेताओं की उस श्रेणी से संबद्ध थे, जिन्होंने ऐसे विशिष्ट कार्य किए, जिनके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, बल्कि उन्होंने स्वयं भी उपयोगी विषयों पर व्यापक लेखन किया, जो भावी पीढि़यों के लिए पढ़ने योग्य है।
जाने माने समकालीन इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने अपनी पुस्तकों में से एक पुस्तक 'मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया' यानी 'आधुनिक भारत के निर्माता' में बाबा साहेब को आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रणी पंक्ति में रखा है, जिनका जीवन एक समान रूप से असाधारण बुद्धिमता और राजनीतिक नेतृत्व की अभिव्यक्ति है। एक जान-माने अर्थशास्त्री, सामाजिक चिंतक और राज्य सभा सदस्य नरेन्द्र जाधव ने छह खंडों और दो संस्करणों, क्रमश: 'आम्बेडकर स्पीक्स' और 'आम्बेडकर राइट्स' में आम्बेडकर के भाषणों और लेखों को अलग-अलग संकलित एवं प्रकाशित किया है। जाधव ने आम्बेडकर को एक ''महान बुद्धिजीवी'' की संज्ञा दी है।
बाबासाहेब बहु-आयामी व्यक्तित्व के धनी थे। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवविज्ञान और राजनीति जैसे अधिसंख्य विषयों में उनकी विद्वता ने उनमें एक स्पृहणीय भावना पैदा की, जिसके चलते वे किसी विषय में किसी से कम नहीं थे। इन दिनों अत्यन्त चर्चित विषय 'अधिक मूल्य के नोटों का विमुद्रीकरण' की परिकल्पना बाबा साहेब ने उस समय की थी, जब वे अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। उनकी शाश्वत विरासत को किसी एक समुदाय, राजनीति, विचार या दर्शन तक सीमित करके देखना वास्तव में, उनके प्रति गंभीर अपकार है।
भारतीय संविधान के निर्माता:
जिन पुरूषों और महिलाओं ने भारत के संविधान का प्रारूप तैयार किया वे अत्यन्त कल्पनाशील और दूरदर्शी थे। बाबा साहेब उस प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, जिसने विश्व के सर्वाधिक विविधता वाले राष्ट्र के लिए सबसे लंबे संविधान का निर्माण किया। यह संविधान दुनिया की आबादी के छठे हिस्से के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करता है। आप इस बात का सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास का समावेशी मॉडल तैयार करने के लिए कितनी अनुकरणीय बुद्धिमता की आवश्यकता पड़ी होगी।
बाबा साहेब एक प्रचंड शिक्षाविद के रूप में:
बाबा साहेब ने कहा था, '' पिछड़े वर्गों को यह अहसास हो गया है कि आखिरकार शिक्षा सबसे बड़ा भौतिक लाभ है, जिसके लिए वे संघर्ष कर सकते हैं। हम भौतिक लाभों की अनदेखी कर सकते हैं, लेकिन पूरी मात्रा में सर्वोच्च शिक्षा का लाभ उठाने के अधिकार और अवसर को नहीं भूला सकते। यह प्रश्न उन पिछड़े वर्गों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जिन्होंने तत्काल यह महसूस किया है कि शिक्षा के बिना उनका वजूद सुरक्षित नहीं है।''
शिक्षा पर बल देने के मामले में बाबा साहेब कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने प्राचार्य जॉन डेवी से अत्यन्त प्रभावित थे। बाबा साहेब अपनी बौद्धिक सफलताओं का श्रेय अक्सर प्रोफेसर जॉन डेवी को प्रदान करते थे। प्रोफेसर जॉन डेवी एक अमरीकी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और संभवत: एक सर्वोत्कृष्ट शिक्षा-सुधारक थे।
बाबा साहेब औपचारिक शिक्षा विदेश में प्राप्त करने के जबरदस्त समर्थक् थे। ऐसे समय में जबकि कानून की शिक्षा ब्रिटेन में प्राप्त करना अधिक लाभप्रद समझा जाता था, बाबासाहेब ने शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाने का निर्णय किया। उन्होंने अमरीकी रेलवे के अर्थशास्त्र से लेकर अमरीकी इतिहास तक विविध पाठ्यक्रमों का अध्ययन किया।
धर्म के बारे में बाबासाहेब के विचार :
डा. आम्बेकर ने मैन्माड रेलवे वर्कर्स सम्मेलन में 1938 में कहा था कि ''शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण चरित्र है। मुझे यह देख कर दुख होता है कि युवा धर्म के प्रति उदासीन हो रहे हैं। धर्म एक नशा नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों का कहना है। मेरे भीतर जो अच्छाई है या मेरी शिक्षा से समाज को जो लाभ हो सकता है, मै उसे अपने भीतर की धार्मिक भावना के रूप में देखता हूं।'' हमें यह समझना चाहिए कि महीनों और वर्षों तक आत्ममंथन करने के बाद उन्होंने एक धर्म का चयन किया, जो उनके पैतृक धर्म के करीब था। दुनियाभर के धार्मिक प्रमुखों और वैचारिक नेताओं ने उनके समक्ष ऐसे आकर्षक प्रस्ताव पेश किए, जिन्हें ठुकराना वास्तव में कठिन था। उनके व्यक्तित्व के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पक्ष को समझना और विश्लेषित करना अत्यन्त कठिन है। एकता में उनकी अटूट आस्था थी, जिसका अनुमान उनके इस कथन से लगाया जा सकता है, ''जातीय रूप में सभी लोग विजातीय हैं। यह संस्कृति की एकता है, जो सजातीयता का आधार है। मैं इसे अनिवार्य समझते हुए कह सकता हूं कि कोई ऐसा देश नहीं है जो सांस्कृतिक एकता के संदर्भ में भारतीय प्रायद्वीप का विरोधी हो।''
रचनात्कम कूटनीतिज्ञ :
भारत की विदेश नीति को आकार प्रदान करने में उनके योगदान की कूटनीतिक समुदाय द्वारा अक्सर अनदेखी की जाती है। भारत पर चीन के हमले से 11 वर्ष पहले बाबासाहेब ने भारत को पूर्व चेतावनी दी थी कि उसे चीन की बजाय पश्चिमी देशों को तरजीह देनी चाहिए और तत्कालीन नेतृत्व से कहा था कि संवैधानिक लोकतंत्र के स्तम्भ पर भारत के भविष्य को आकार प्रदान करे।
1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि ''सरकार की विदेश नीति भारत को सुदृढ़ बनाने में विफल रही है। भारत सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट क्यों न हासिल करे। इस प्रधानमंत्री ने इसके लिए क्यों नहीं प्रयास किया। भारत को संसदीय लोकतंत्र और मार्क्सवादी तानाशाही के बीच एक का चयन करते हुए अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।
चीन के संदर्भ में आम्बेडकर तिब्बत नीति से पूर्णतया असहमत थे। उन्होंने कहा था कि ''यदि माओ का पंचशील में कोई विश्वास है, तो उन्हें अपने देश में बौद्ध धर्मावलंबियों के साथ निश्चित रूप से पृथक व्यवहार करना चाहिए। राजनीति में पंचशील के लिए कोई स्थान नहीं है।''
आम्बेडकर ने लीग आफ डेमाक्रेसीज को अवांछित बताया। उन्होंने कहा ''क्या आप संसदीय सरकार चाहते हैं? यदि आप ऐसा चाहते हैं तो आपको उन देशों को मित्र बनाना चाहिए, जो संसदीय सरकार रखते हैं।''
वर्तमान सरकार ने बाबासाहेब की 126वीं जयंती के अवसर पर देश के विकास में अपेक्षित हितभागिता प्रदान करने के लिए दलितों के कल्याण के लिए अनेक वैधानिक उपायों की घोषणा की है, जो एक उपयुक्त कदम है। मुद्रा योजना और अजा एवं अजजा उद्यमियों के लिए राष्ट्रीय केन्द्र की स्थापना जैसे उपायों से दलित निश्चित रूप से उन क्षेत्रों में अपनी सुदृढ़ उपस्थित दर्ज कर सकेंगे, जो परम्परागत रूप में विभिन्न कारणों से उनकी पहुंच से बाहर रहे हैं।
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