बाबा साहब के दादा मालोजी का गांव 'आम्बावड़े' रत्नागिरी जिले के एक कस्बे मण्डनगढ़ से पांच मील दूर था। इस ग्राम के नाम से सभी लोग उनके परिवार को 'आम्बवाडेकर' उपनाम से पुकारा करते थे। उनके पूर्वज अपने गांव में धार्मिक त्योहारों के समय देवी देवताओं की पालकियाँ उठाने का काम करते थे, जो उनके पारिवारिक सम्मान का द्योतक था।
बाबा साहब के विद्यालयी जीवन में एक ब्राह्मण अध्यापक का उन पर अत्यधिक स्नेह था। वे उन्हें मध्यान्ह में अपने साथ लाया भोजन देते थे। उनको लगता था कि आम्बावाडेकर उपनाम बोलने में अटपटा लगता है। अतः भीमराव को अपना नाम 'अम्बेडकर' देते हुए विद्यालय अभिलेखों में भी परिवर्तन करवा दिया।
बाबा साहब के पिता 'रामजी सकपाल' थे। सेना की अनिवार्य शिक्षा के कारण अपने पिता मालोजी के साथ रहते हुए ये भी शिक्षित हो गए थे। पूना के नॉर्मल स्कूल शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर ये चौदह वर्ष तक सैनिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक रहे।
मराठी भाषा पर उनका अधिकार था तथा अंग्रेजी भी जानते थे एवम गणित में प्रवीण थे। ये कबीर पंथी होने के कारण मांस-मदिरा का सेवन नहीं करते थे क्रिकेट व फुटबाल में उनकी रूचि थी। महात्मा फुले के प्रशंसक ,समाज-कल्याण के कार्यों में सक्रिय,स्वभाव से गंभीर एवम अनुशासन प्रिय थे। आप सूबेदार मेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए।
बाबा साहब की माता भीमाबाई थी। इनका पीहर मुम्बई के निकट थाने जिले के 'मुरबाड' गांव में था। इसी से परिवार का उपनाम था मुबाड़कर। इनका परिवार धनी,धार्मिक तथा समाज मे प्रतिष्ठा प्राप्त था क्योंकि उनके पिता और छः चाचा सेना में सूबेदार मेजर थे, उस समय ब्रिटिश सेना में किसी भारतीय की प्राप्त हो सकने वाला सर्वोच्च पद था।
इनका परिवार भी कबीर पंथी था। ऐसी कौटुम्बिक पृष्ठभूमि वाली भीमाबाई सुंदर व्यक्तित्व वाली मिलनसार, शांत व गंभीर स्वभाव वाली धार्मिक महिला थी।
ध्यान में आता है कि बाबा साहब का अनुवांशिक प्रारब्ध अत्यंत प्रबल था और दिव्य अवतरण की आधार भूमि अत्यंत उर्वर थी। इसके साथ पितृ-पुरुषों की साधना का सुयोग था। रामजी सकपाल अपने परिवार सहित महू(इंदौर) छावनी में रहते थे उस समय की घटना है।
सन्यासी चाचा अपनी जमात के साथ वहां से निकल रहे थे। उस समय की एक स्त्री ने, जो पास ही नदी में कपड़े धो रही थी, उन्हें देखकर पहचान लिया। उसने दौड़कर घरवालों को सूचना दी। परिवार के सभी सदस्य संतों के विश्राम स्थल पर गए, उनका आदर-सत्कार किया तथा उनसे प्राथना की कि वे पधारकर घर को पवित्र करें।
उन्होंने सन्यास की मर्यादानुसार घर आने से मना कर दिया किन्तु रामजी व भीमाबाई को आशीर्वाद दिया कि "अपने वंश की तीन पीढ़ियों में तीन पुरुष सन्यासी बन गए। घोर तपस्या कर तीनों ने भगवान से एक ही वर मांगा है कि 'हे भगवान ! हमारे वंश में एक ऐसा पुत्र उतपन्न कीजिये जो हमारे कुल का नाम सर्वत्र रोशन करे और अपने बंधुओं तथा धर्म के बुरे दिन समाप्त कर जाती और धर्म को प्रकाशित करें।
"भगवान ने यह वर दे दिया। तुम्हारे यहां एक ऐसा पुत्र जन्म लेगा जो तुम्हारे परिवार को ही नहीं तुम्हारी समस्त जाति ओर देश को भी पवित्र कर देगा।"
आशीर्वाद के अनुरूप 14 अप्रैल 1891(चैत्र शुक्ल सप्तमी संवत 1948) को महू छावनी में भीमाबाई की कोख पवित्र करने जिस शिशु का अवतरण हुआ वह इस दंपति की चौदहवीं सन्तान थी। उसका नाम रखा गया भीम।
जिस प्रकार समुद्र मंथन से चौदहवीं व अंतिम रतन 'अमृत' प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार यह शिशु भी बड़ा होकर स्वयं हलाहल पीकर अन्यों को अमृत बांटने वाला शंकर सिद्ध होने वाला था।
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